रिपोर्ट - प्रदीप कुमार सैनी
श्री खेड़ापति बालाजी का इतिहास
दांतारामगढ़ । महाभारत युद्ध से पूर्व पांडवों ने बारह वर्ष के बनवास काल में कुछ समय अरावली श्रेणी के इस क्षेत्र में बिताये थे। लोहार्गल से लेकर दाँता के दक्षिा तक उनका बनवास का उल्लेख मिलता है। महाभारत में वर्णित स्थानों में यह दाँता स्थान भी खट्वांग नगरी (खाटू) से सात कोस पश्चिम में तथा अहिछापुर (नागौर) से पचास कोस पूर्व में बताया हैं। जो पंचनाग गिरिताल के नाम से प्रसिद्ध है। यहा द्रोणाचार्यजी ने यज्ञ किया था जिसमें पाडवों की स्थापित बालाजी (खेड़ापति) की मूर्ति इस ताल के दक्षिण में थी। यह मूर्ति करीब 5 हजार वर्ष पुरानी है यह मूर्ति जमीन को फाड़कर निकली थी। उस समय भीम ने इसे ऊपर लेने की चेष्टा की तो 22 हाथ नीचे खोदने पर भी इसका अंत नहीं आया, इसलिए केवल आकार को छोड़कर बाकी खोदना बंद कर दिया गया।
यहाँ पर पाँच गिरि ये है - किलेवाला पहाड़ नाग पर्वत, देवाली डूंगरी नागिन पर्वत, भूरी डूंगरी दंभी नागपर्वत, तूली डूंगरी कुंडली नागपर्वत एवं मालावली डूंगरी सरीसृप नाग पर्वत हैं। इनके मय में चौपड़ में बीच वाला बृहद तालाब था जो कि पानी से भरा रहता था, द्रोणाचार्यजी ने इसी तालाब के दक्षिण में खेड़ापति बालाजी के सामने वाली भूमि में यज्ञ किया था। कारण कि यह भूमि ऊपर से ढुढिय़ा राक्षस एवं अय राक्षसों के रक्त से दूषित मानी गई हैं। इसलिए यह मूर्ति जमीन के स्तर से 5 हाथ नीचे ही प्रकट हुई व वही पर स्थापित पूजित की गई। महाराजा जयसिंह जयपुर ने जब बादशाही होती थी, उस समय भी बीकानेर से आने वाले पं. श्याम पांडे ने इस भूमि के स्तर को अपवित्र मानकर नीचे 5 हाथ खुदाकर यज्ञ किया था जो सफल रहा। इस विधान से यहां इस भूमि को पांच हाथ खोदकर ही बालाजी की मूर्ति प्रकट हुई व पूजित की थी क्योंकि यह मूर्ति भूमि के फटने से भूमि के स्तर से 5 हाथ नीचे ही रही थी। श्याम पाण्डे ने भी इस बालाजी के दर्शन पूजन किये थे। भीम द्वारा 22 हाथ खोदने पर भी इसका अन्त नहीं आया। अत: आकार निकलने पर राजा युधिष्ठिर की आज्ञा से खुदाई बन्द कर वहीं पूजित की गई। यह मूर्ति बड़ी (चमत्कारित है) चमकारी हैं। कहते है कि सालासर बालाजी की मूर्ति 250 वर्ष पुरानी हैं। वह तो इसके काफी बाद की हैं। पहले चारो दिशाओं से पचास कोस के लोग इसे पूजने आते थे और जात-जडूला करते थें। इसलिए यह स्थान क्षेत्रपति (खेड़ापति) बालाजी के नाम से विख्यात हैं। आज भी आस-पास के सभी लोग तथा सीकर, डीडवाना, नागौर, जयपुर, अजमेर तक के लोग यहाँ जात-जडूला करने आते हैं। सवामनियां होती हैं। प्रति मंगलवार को प्रयेक भक्त वहां दर्शनार्थ जाते हैं। श्रीफल चढ़ाते हैं। इसकी महिमा बड़ी अद्भुत हैं।