अभी 28वीं महायुगी का 28वां कलियुग चल रहा है। प्रथम सत्ययुग में राजा बलि की आज्ञा से राष्ट्रीय अभ्युदय और लक्ष्मी की स्थिरता के लिए त्रिदिवसीय दीपावली महोत्सव आरम्भ हुआ।-
बलिराज्ये दीपदानात् सदा लक्ष्मी: स्थिरा भवेत्।
दीपैर्नीराजनादत्र सैषा दीपावली स्मृता।।
शास्त्रों में जिस कर्म के लिए जो समय निर्धारित है, उस समय तिथ्यादि की वैसी ही स्थिति होनी चाहिए।-
य यस्य विहित: काल: कर्मणस्तदुपक्रमे।।
दीपावली हेतु प्रदोषकालव्यापिनी अमावस्या मुख्य कर्मकाल है। प्रदोष के साथ उसी दिन अर्द्धरात्रि में भी अमावस्या हो तो लक्ष्मीपूजा का विशेष महत्व है।-
अर्धरात्रे भ्रमत्येव लक्ष्मीराश्रायितुं गृहात्।
दीपावली नक्तव्रत है अतः प्रदोष व्यापिनी अमावस्या तिथि में ही पारण आदि कर्म विहित हैं।-
प्रदोषव्यापिनी ग्राह्या तिथिर्नक्तव्रते सदा।
और भी
नक्तव्रते च सम्प्राप्ते तत्काल व्यापिनी तिथि:।
नक्तव्रत में प्रदोषकाल के बाद रात्रि का संयोग हो तो कोई संशय ही नहीं है।-
नक्तादि व्रतयोगेषु रात्रियोगो विशिष्तये।
प्रदोष काल -
स्थूल रूप से सूर्यास्त के बाद तीन मुहूर्त अर्थात् छः घटी अर्थात् 144 मिनट तक का समय प्रदोषकाल कहलाता है।-
त्रिमुहूर्त: प्रदोष: स्याद्भानावस्तंगते सति।
नक्तं तत्र प्रकुर्वीत इति शास्त्रस्य निश्चय:।।
दो, तीन और चार घटी का भी प्रदोषकाल कहा गया है जो सन्ध्या वन्दनादि में ग्राह्य है।
जिस दिन भी कार्तिकी अमावास्या प्रदोषकालव्यापिनी हो उस दिन दीपावली होगी।
दोनों दिन प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या होगी तो दूसरे दिन दीपावली होगी। और भी बहुत विकल्प हैं।
दोनों दिन प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या नहीं है तो ही अन्य विकल्पों पर विचार करना चाहिए।
रात्रिमान के अनुसार प्रदोषकाल का मान न्यूनाधिक हो सकता है। जैसा कि इस वर्ष 20 अक्टूबर को सूर्यास्त के बाद 2 घंटा 32 मिनट अर्थात् 152 मिनट का प्रदोषकाल है।
धर्मसिंधु सूत्रात्मक निबन्ध ग्रंथ है। इसमें दीपावली निर्णय अक्षरशः पुरुषार्थचिन्तामणि पर आधारित है।
सभी धर्मग्रंथों के अनुसार पूरे भारतवर्ष में सौर दृक् ब्राह्म गणनाओं से प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या केवल 20 अक्टूबर को होने से दीपावली 20 अक्टूबर को ही श्रेयस्कर है।
कुछ दृक् पक्षीय पंचांगों ने 21 अक्टूबर की भी दीपावली लिखी है, जिससे दृक् पक्षीय पंचांगकारों और आमजन में विसंगति व्याप्त है।
21 अक्टूबर को भारत के अन्तिम भूभाग अरुणाचल प्रदेश के डांग क्षेत्र में भी सूर्यास्त बाद पूर्ण प्रदोषकाल में अमावस्या व्याप्त नहीं है। दूसरे दिन स्पर्श मात्र कर्मकाल में पारणादि सभी कार्य सम्भव नहीं है अतः ग्राह्य नहीं है।
व्याप्ति या व्यापिनी का अर्थ पूर्ण आच्छादन है, पूर्ण प्रदोषकाल तक है। व्यापिनी व्यापक अर्थ में होने से विशेष परिस्थितियों को छोड़कर स्पर्शमात्र प्रदोषकाल या एकदेशमात्र प्रदोषकाल दीपावली के लिए स्वीकार्य नहीं है।
अर्थात् जिस दिन सूर्यास्त से पूर्व अमावस्या हो और तीन मुहूर्त बाद तक भी अमावस्या रहे उस दिन दीपावली होगी। ऐसी स्थिति 20 अक्टूबर को ही है, 21 को नहीं।
कर्मकाल व्यापिनी अमावस्या में
प्रातः अभ्यङ्ग स्नान, पूर्वाह्न में देवपूजा, अपराह्न में पितृपार्वण और प्रदोषकाल में लक्ष्मीपूजा, दीपदान, पितरों के निमित्त उल्का दर्शन, नक्तव्रत का पारण-भोजन आदि मुख्य कर्म है।-
पुरुषार्थ चिन्तामणि 243
प्रदोषे दीपदानोल्कादान ... नक्तभोजनानि विहितानि।
विशेष परिस्थितियों को छोड़कर दीपावली के दिन प्रदोषकालीन वेला में प्रतिपदा का स्पर्श रजस्वला स्त्री के समान पूर्णतः त्याज्य है। 21 अक्टूबर को प्रदोषकाल में प्रतिपदा आ रही है अतः उस दिन दीपावली निषेध है-
दीपोत्सवस्य वेलायां प्रतिपद् दृश्यते यदि।
सा तिथिर्विबुधैस्त्याज्या यथा नारी रजस्वला।।
विधि से निषेध प्रबल होता है, निषेध निवृत्ति स्वरूप होता है।-
निषेधस्तु निवृत्त्यात्मा कालमात्रमपेक्षते
तत्परा रजनी ज्ञेया... और नक्षत्रदर्शनानन्तरं मुहूर्तत्रयपर्यन्त:.. आदि वाक्यों से सूर्यास्त से 144 मिनट प्रदोषकाल के बाद के समय की रात्रि-रजनी संज्ञा है। इसीलिए प्रदोषकाल को रजनीमुख-निशामुख आदि कहा है, न कि निशा दोषा रात्रि रजनी आदि।
धर्मसिंधु के अनुसार जिस दिन सूर्योदय से पूर्व प्रारम्भ होकर सूर्यास्त के बाद रात्रि-रजनी में एक घटी से अधिक अमावस्या की व्याप्ति हो तो उस दिन दीपावली मनाने में कोई संदेह नहीं है। यहां सूर्यास्त के बाद एक घटी अमावस्या अर्थ ग्रहण करना निर्मूल होगा।
धर्मसिन्धुकार का मन्तव्य ऐसा होता तो
घटिकाधिक रात्रि व्यापिनी वाक्य में रात्रि न कह कर घटिकाधिक प्रदोष व्यापिनी कहते।
कई शंकाओं को समूल विनष्ट करने के लिए ही तो इसी एक घटी रात्रि के लिए भविष्यत्पुराण में कहा है-
दण्डैक रजनीयोगे दर्श: स्यात्तु परेऽहनि।
तदा विहाय पूर्वेद्यु: परेऽह्नि सुखरात्रिके।।
जब दूसरे दिन एक घटी रजनी में अमावस्या का संयोग हो तो पहले दिन को छोड़कर दूसरे दिन सुखरात्रि-दीपावली मनावें। यहां रजनी शब्द 144 मिनट बाद के लिए प्रयुक्त हुआ है।
मूल ग्रन्थ में सुखरात्रिके द्विवचन का प्रयोग है। वैसे सुखरात्रिका भी समीचीन है।
एक घटी रात्रि का मूल पुरुषार्थ चिन्तामणि में द्रष्टव्य है -
तच्चोत्तरदिने अस्तोत्तरं घटिकादि अवच्छेदन विद्यते तथा सैव ग्राह्या। दण्डैकरजनीयोगे...
यहां सूर्यास्त बाद एक घटी नहीं घटिकादि अवच्छेदन कहते हुए रजनी में एकदण्ड स्वीकार किया है। अर्थात् छः घटी में से।
कार्तिकी अमावास्या को दीपावली सुखरात्रि सुखरात्रिका और सुखसुप्तिका आदि कहा गया है। वैसे लक्ष्मीपूजा के उद्देश्य से सब एक ही हैं।
सुखसुप्तिका-दीपावली का कर्मकाल प्रदोषकाल के साथ रात्रि भी है।-
श्रिया सार्धं जगद्योनि: शेते विष्णु सुखान्विता।
तस्यां रात्रौ जनानां तु अतोऽर्थं सुखसुप्तिका।।
यहां रात्रि शब्द का अर्थ सूर्यास्त के बाद के समय को कैसे ग्रहण कर सकते हैं।
राजमार्तण्ड में लिखा है कि यदि दूसरे दिन प्रदोषकाल बाद रात्रि में अमावस्या एक घटी नहीं हो तो चतुर्दशी मिश्रित अमावस्या में ही लक्ष्मी पूजा करें।-
दण्डैकं रजनी प्रदोष समये दर्शे यदा संस्पृशेत्।
कर्त्तव्या सुखरात्रिकाऽत्र विधिना दर्शाद्यभावे तदा।
पूज्या चाब्जधरा सदैव च तिथि: सैवाहनि प्राप्यते।
कार्या भूतविमिश्रिता जगुरिति व्यासादि गर्गादय:।।
अर्थात् जब प्रदोषकाल में अमावस्या एक घटी रजनी स्पर्श कर ले तो उसी दिन विधिपूर्वक सुखरात्रिका अर्थात् दीपावली मनावें। और यदि दूसरे दिन रात्रि में अमावस्या का अभाव हो तो चतुर्दशी मिश्रित अमावस्या में ही लक्ष्मीपूजा करें। ऐसा व्यासादि ऋषि कह रहे हैं।
भागवत 6/6/15 में दिन पांच प्रहर का कहा गया है-
पञ्चयामोऽथ भूतानि येन जाग्रति कर्मसु।
स्पष्ट है पांच प्रहर का दिन होता है और तीन प्रहर की रात।
इसकी व्याख्या में कहा है कि प्रदोषप्रत्यूषयोर्दिवसस्यावयवयात्।
स्पष्ट है
त्रियामा रात्रि: - पंचयामो दिवस: के अनुसार रात्रि-रजनी प्रदोषकाल पश्चात् ही प्रारम्भ होती है। इसीलिए दूसरे दिन दीपावली मनाने के लिए प्रदोषकाल पश्चात् एक घटी अमावस्या हो तो कोई संदेह नहीं कहा गया है।
विशेष -
इसी कथन की पुष्टि निर्णयामृत के पृष्ठ 142 पर दीपावली प्रसंग में दोषा शब्द का प्रयोग करते हुए कहा है-
दीपमाला कुले रम्ये विध्वस्त ध्वान्त संचये।
प्रदोषे दोषरहिते शस्ते दोषागमे शुभे।।
अर्थात् दोष रहित प्रदोषकाल ही दीपावली के लिए ग्राह्य है। और दोषा-रात्रि भी दोषरहित तो शुभ है।
यहां दण्डैक रजनी योगे... के समान प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या के बाद प्रारम्भ होने वाली दोषा अर्थात् रात्रि मिल जावे तो उस दिन दीपावली अत्यन्त प्रशस्त है। अन्यथा पहले दिन चतुर्दशी विद्धा अमावस्या में ही दीपावली होगी।
इसीलिए गतवर्ष एक नवम्बर की और इस वर्ष इक्कीस अक्टूबर की दीपावली कहने वाले कतिपय दृक् पक्षीय पंचांगकार केवल स्थापित रहने के लिए प्रदोषकाल व्यापिनी का और रात्रि शब्द का वास्तविक अर्थ ग्रहण नहीं करके विसंगति फैला रहे हैं और अपना पक्ष रखते हुए अत्यन्त संघर्षरत हैं।
21 की दीपावली लिखने वाले महानुभाव जिन वचनों का आधार लेकर समाज में विसंगतियां फैला रहे हैं उन पर शास्त्रीय निर्णय -
1. दीपावली के लिए युग्मतिथि के वचन मान्य नहीं है क्योंकि-
तुलायां मिथुने मीने कन्यायां मकरेऽप्यथा।
भूतविद्धा व्रते ग्राह्या शेषेषु प्रतिपद्युता।।
तुला आदि संक्रांतियों में व्रतादि में भूतविद्धा अमावस्या ही ग्राह्य है, प्रतिपद्विद्धा नहीं।
और भी कहा है
आषाढी श्रावणी चैव फाल्गुनी दीपमालिका।
नन्दा विद्धा न कर्त्तव्या कृते धान्यक्षयो भवेत्।।
अर्थात् प्रदोषकाल में दीपावली प्रतिपद् विद्धा निषेध है। प्रतिपदा में दीपावली मनाना अनिष्टकारी कहा है।
2. साकल्यप्रतिपादित तिथि तिथ्यादि के अभाव में ही ग्रहण की जाती है। 20 अक्टूबर को प्रदोषकालीन अमावस्या है तो 21 को साकल्यप्रतिपादित तिथि की कहां आवश्यकता है। वैसे दीपावली साकल्यवचनापवादवचनात् साकल्यवचन का अपवाद है। क्योंकि यहां प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या ही मुख्य पक्ष है। साकल्य प्रतिपादित तिथि एकादशी आदि में विशेष महत्व रखती है।
3. स्वाति नक्षत्र का केवल लक्ष्मीपूजा से संबंध कहना निर्मूल है। स्वाति नक्षत्र केवल अभ्यंग स्नान में श्रेयस्कर है। रात्रि के चतुर्थ प्रहर में चतुर्दशी अमावस्या और प्रतिपदा होने की स्थिति में अभ्यंग स्नान विहित है। इनमें जिस दिन भी स्वाति नक्षत्र का संयोग हो उस दिन अभ्यंग स्नान प्रशस्त कहा गया है।-
यत्र यत्र अह्नि स्वातिनक्षत्रयोग: तस्य तस्य प्राशस्त्यातिशय:।
धर्मसिंधु के अमावस्याभ्यंगनिर्णय में प्रारम्भ की सात पंक्तियां मुक्तकंठ से प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या में दीपावली मनाने का समर्थन कर रही हैं तो इन्हें 21 का दुराग्रह नहीं करना चाहिए।
4. दृक् पक्षीय कतिपय पंचांगकार पुरुषार्थ चिन्तामणि का नाम लेकर 21 अक्टूबर को तीन प्रहर से अधिक अमावस्या और प्रतिपद्वृद्धिगामिनी को आधार बना रहे हैं तो क्यों नहीं पुरुषार्थ चिन्तामणि को ही समझ लें। वहां अभ्यंग स्नान के प्रसंग में लिखा है कि-
जब दूसरे दिन तीन प्रहर अमावस्या हो और तीसरे दिन साढ़े तीन प्रहर प्रतिपदा हो तो क्या करें-
त्रियामगादर्शतिथिर्भवेच्चेत्
सार्धत्रियामा प्रतिपद्विवृद्धौ।
दीपोत्सवे ते मुनिभि: प्रदिष्टे
अतोन्यथा पूर्वयुते विधेये।।
अर्थात् दूसरे दिन अमावस्या तीन प्रहर तक हो और तीसरे दिन साढ़े तीन प्रहर की वृद्धिगामिनी प्रतिपदा हो हो तो दीपोत्सव अर्थात् त्रिदिवसीय दीपावली में अभ्यंग स्नान के लिए ते - वे अमावस्या और प्रतिपदा दोनों तिथियां मुनियों द्वारा प्रदिष्टे - कही गयी है अर्थात् दूसरे दिन वाली ग्रहण करें। अतःअन्यथा - इसके विपरित अर्थात् तिथिमान न्यून हो तो अभ्यंगादि कृत्य पूर्व दिन करने चाहिएं।
और भी कहा है -
प्रतिपदा साढ़े तीन प्रहर हो और द्वितीया भी वृद्धिगामी हो तो वहां भी अभ्यंग स्नान में ऐसा ही समझें। यह द्वितीया मंगलमालिका के लिए भी कही है
वहीं लिखा है कि यह निर्णय अभ्यंग स्नान हेतु हैं। यहां दीपोत्सव शब्द त्रिदिवसीय दीपावली हेतु है न कि केवल लक्ष्मी पूजा के लिए।
प्रथमत: दृक् पक्षीय पंचांगों में अमावस्या का मान चार प्रहर से अधिक होकर प्रदोषकाल को स्पर्श कर रहा है। और प्रतिपदा मान तो कहना ही क्या अत: तीन या साढ़े तीन प्रहर से अधिक अमावस्या का यह वचन 21 अक्टूबर की दीपावली के लिए पूर्णतः निराधार है निर्मूल है।
*पूज्य पितृपाद कहा करते थे कि सार्द्धत्रियामा आदि वाक्य प्रातः अभ्यंग के लिए तो हैं ही परन्तु कभी दीपावली के दिन ग्रहण की स्थिति आ जाए तो और दूसरे दिन तीन साढ़े तीन प्रहर तक ग्रहण शुद्ध हो जाए तो दूसरे दिन दीपावली होगी। क्योंकि ऐसी स्थिति में मध्य रात्रि पूर्व ही ग्रहण का सूतक लगने से लक्ष्मी-पूजन सम्भव नहीं है। यह भी एक पक्ष है।
इनके पास एक भी विधि वाक्य नहीं है जो 21 अक्टूबर की दीपावली प्रमाणित कर सकें।
धर्मसिंधु के ही यामत्रयाधिकव्यापि या सार्धयामत्रयाधिकव्यापि अमावस्या वाक्यों से एकदम स्पष्ट है कि व्यापि का अर्थ क्या है, फिर भी ये महानुभाव समझना ही नहीं चाहते हैं। गतवर्ष भी इन्होंने मूल वाक्यों के अर्थ का अनर्थ कर समाज में विषवमन ही किया था। पर जनता ने 31 अक्टूबर की दीपावली मनाकर शास्त्रीय वचनों का संरक्षण व संवर्धन ही किया था और इस बार भी करेंगे।
पूरे प्रदोषकाल तक अमावस्या होगी तो घर मन्दिर पीपल गोशाला चौराहा आदि पर दीपदान, घर में लक्ष्मी पूजा आरती, पितरों को प्रसन्नता पूर्वक विदा करने हेतु उल्का प्रदर्शन और व्रत का पारणा खोलकर भोजन कर सकेंगे।
पुरुषार्थ चिन्तामणि-
तत: प्रदोषसमये पूजयेदिंदिरां शुभाम्।
दीपदानं तत: कुर्यात् प्रदोषे च तथोल्मुकम्।।
भ्रामयेत् स्वस्य शिरसि सर्वारिष्ट निवारणम्।
दीपवृक्षास्तथा कार्या: शक्त्या देवगृहादिषु।।
ब्राह्मणान् भोजयित्वादौ संभोज्य च बुभुक्षितान्।
अलंकृतेन भोक्तव्यं नववस्त्रोपशोभिना।।
कार्तिकी अमावस्या की महानिशा के निशीथ काल में समुद्रमन्थन से महालक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव हुआ था। निशीथ काल के भी दो पक्ष हैं- पहला रात्रि का आठवां मुहूर्त और दूसरा रात्रि का तीसरा प्रहर। अतः अमावस्या की पूरी रात दीपावली लक्ष्मी पूजन के लिए प्रशस्त है।
"कर न सके सोई कर लें मन नहीं घबराता जय लक्ष्मी माता" मां की आरती बहुत बड़ा सन्देश देती है।
शास्त्रों की मान्यता है कि हमारे दिवंगत सभी पितर कनागतों के पहले दिन प्रौष्ठपदी पूर्णिमा को पितृलोक से मृत्युलोक में आते हैं और दीपावली की रात उल्काओं की रोशनी देखते हुए पितरलोक को प्रस्थान करते हैं। अतः अपने-अपने पितरों को दीपावली की रात ढांढ (उल्का-मशाल) जलाकर ऊपर आसमान की ओर दिखाते हुए उनका मार्ग प्रशस्त करें अर्थात् सम्मान विदा करें। यह कर्म छोटी दीपावली अर्थात् चतुर्दशी की रात्रि में भी अवश्य करना चाहिए ये सब शास्त्रोक्त विधान है।
इस कर्म हेतु भी पुरुषार्थ चिन्तामणि के अनुसार प्रदोषकाल ही मुख्य है-
तुलासंस्थे सहस्रांशौ प्रदोषे भूतदर्शयो:।
उल्काहस्ता नरा: कुर्यु: पितॄणां मार्गदर्शनम्।।
भूत-चतुर्दशी, दर्श-अमावास्या।
ऐसा करने से बड़े से बड़ा पितृदोष शान्त हो जाता है। इससे पितरों को अत्यधिक संतुष्टि मिलती है और उनका कृपा प्रसाद प्राप्त होता है।
राजा बलि के आदेश से राष्ट्रीय अभ्युदय के लिए चतुर्दशी अमावस्या और प्रतिपदा तीन दिन आमजन के लिए सूर्योदय से पूर्व चौथे प्रहर में अभ्यंग स्नान और प्रदोषकाल में दीपदान अनिवार्य कर्म था। अमावस्या को पितरों का श्राद्ध लक्ष्मीपूजा और दीपावली राष्ट्रीय धर्म था।
यह भी पुरुषार्थ चिन्तामणि में स्पष्ट है।-
बलिराज्यं समासाद्य यैर्न दीपावली कृता।
तेषां गृहे कथं दीपा: प्रज्ज्वलिष्यन्ति केशव।।
अभ्यंग स्नान में राष्ट्रीय और वैयक्तिक अपवर्ग सुख निहित है।-
वत्सरादौ वसन्तादौ बलिराज्ये तथैव च।
तैलाभ्यंगमकुर्वाणो नरकं प्रतिपद्यते।।
आज भी राष्ट्र का अभ्युदय चाहने वालों को होली दीपावली रक्षाबंधन आदि पर्व शास्त्रीय विधि से सही समय पर मनाने चाहिए।
शासन को भी चाहिए कि वे इन पर्वों की प्रामाणिकता और एकरूपता संस्थापित करें।
शास्त्रीय वचनों के विरुद्ध लामबंद होकर दीपावली आदि पर्वों को विपरीत समय पर करने से ही सनातन का ह्रास होता आया है।
भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन की खुशी में भी दीपावली पर सभी जगहों पर दीपक जलाने की परम्परा है।
लक्ष्य एक ही है कि हम सब प्रदोषकाल व्यापिनी अमावस्या में दीपावली के दिन अधिक से अधिक दीपदान करें जिससे हम विश्वगुरु पद पर पुनः स्थापित हो सकें।
जयपुर राजस्थान के अनुसार 20 अक्टूबर सोमवार को लक्ष्मी पूजा के शुभ मुहूर्त -
20 अक्टूबर को प्रातःकाल चतुर्दशी रहेगी, 15.45 पर अमावस्या लगेगी और सूर्यास्त 17.50 के साथ ही प्रदोषकाल प्रारम्भ हो जाएगा।
प्रदोष काल- 17.50 से 20.24
वृष लग्न- 07.19 से 21.16
सिंह लग्न- 01.49 से 04.08
देवी पूजा में द्विस्वभाव मिथुन और कन्या लग्न भी ग्राह्य हैं।
चौघड़िया के शुभ मुहूर्त -
लाभ का- 22.37 से 00.11
शुभ का- 01.45 से 03.19
अमृत का- 03.20 से 04.54
धन त्रयोदशी - 18 अक्टूबर शनिवार।
नरक चतुर्दशी छोटी दीपावली रूप चौदस - 19 अक्टूबर रविवार।
दीपावली लक्ष्मीपूजा - 20 अक्टूबर सोमवार।
पितरों की अमावस्या 21 अक्टूबर मंगलवार को मनावें। इसी दिन प्रातः अमावस्या का अभ्यंग स्नान भी कहा है।
22 अक्टूबर बुधवार को अन्नकूट व गोवर्धन पूजा शुभ है। प्रातः प्रतिपदा में अभ्यंग स्नान।
23 नवम्बर को भैया दूज रहेगी।
दीपावली की मध्यरात्रि में गृह लक्ष्मी द्वारा घरों में झाड़ू निकाल कर अलक्ष्मी का निष्कासन किये जाने की परम्परा है। शास्त्रों के अनुसार निशीथ अर्थात् तीसरे प्रहर बाद अर्थात् रात्रि के नौ घंटे बाद प्रत्यूष में झाड़ू निकालनी चाहिए मध्य रात्रि में नहीं क्योंकि मध्य रात्रि में तो लक्ष्मी माता घर घर पधारती हैं।-
एवं गते निशीथे तु जने निद्रार्धलोचने।
तावन्नगरनारीभि: शूर्पडिंडिमवादनै:।
निष्कास्यते प्रहृष्टाभिरलक्ष्मी: स्वगृहाङ्गणात्।।
स्वकीय और राष्ट्रीय हित चाहने वालों को भूलकर भी चतुर्दशी और प्रतिपदा में दीपावली विहित कर्म नहीं करने चाहिए। अतः पूरे भारत में 20 अक्टूबर सोमवार को ही दीपावली सर्वथा शुद्ध एवं शास्त्रीय है।
पंडित कौशल दत्त शर्मा
कल्पतरु ज्योतिष शोध संस्थान
सेवानिवृत्त प्राचार्य- संस्कृत शिक्षा
नीमकाथाना राजस्थान
9414467988
Diwali 2025 decision by scriptures,
Pradosh‑kaal Amavasya rule for Diwali,
20 October Diwali vs 21 October dispute,
Dharma‑Sindhu rules for Deepavali,
Naktavrat and Diwali timing,
Kartiki Amavasya Pradosh period,
Traditions of Deepavali in India,
Shastras on Diwali festival,
Scriptural basis for Diwali date,
Abhyanga Snan on Amavasya morning,
Dhanteras, Narak Chaturdashi, Deepavali sequence,
Pitru Amavasya next day of Diwali,
Annakoot / Govardhan Puja after Diwali,
Panchang discrepancy Diwali 2025,
Yuga theory and Diwali tradition,
Deepadan and Laksmi stability tradition,
Ritual timings in Hindu festivals,
Naksatra and Tithi considerations for Diwali,
Tradition vs modern calendars in Diwali,
Shastric validation of festival dates,