बीकानेर(जयनारायण बिस्सा)। अधिक मास यानि पुरुषोत्तम मास ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा पर बुधवार को को शुरू हो गया, जो 13 जून तक चलेगा। इस दौरान विवाह, गृह प्रवेश जैसे मांगलिक वर्जित रहेंगे। वहीं शहर प्रमुख मंदिरों में मनोरथों की धूम शुरू हो जाएगी। अधिक मास में किए दान-पुण्य और धार्मिक आयोजन का कई गुना फल देने वाले बताए गए हैं। आस्था के केंद्र दाउजी मंदिर में मनोरथों की धूम रहेगी। जो पूरे एक माह तक जारी रहेगी। इस दौरान शहर में भागवत कथाएं,मंदिरों में कथा-कीर्तन के साथ होंगे विशेष मनोरथ के आयोजन होंगे।
ज्योतिषविद ब्रह्मदत्त व्यास बताते हैं कि वैदिक काल से ही अधिकमास सूर्य वर्ष के मान व चंद्र वर्ष के मान में होने वाले अंतर में समानता लाने के लिए चंद्र वर्ष 12 माह के स्थान पर 13 माह का कर दिया जाता है। इस अतिरिक्त एक माह को अधिक मास कहते हैं। अधिक मास में सूर्य संक्रांति नहीं होती है। सूर्य वर्ष का मान 365 दिन माना जाता है, जबकि चंद्र वर्ष का मान 354 दिन का ही होता है यानी सूर्य-चंद्र के वर्ष में अंतर होता है। तीन साल में यह अंतर एक माह का हो जाता है। तीन साल बाद दोनों वर्षों में समानता लाने के लिए चंद्र वर्ष 13 माह का हो जाता है। इसलिए हर तीन साल बाद अधिकमास की पुनरावृत्ति होती है। इससे पहले वर्ष 2007 में ज्येष्ठ माह में अधिक मास था।
इसलिए नहीं किए जाते हैं विवाह, गृह प्रवेश जैसे मांगलिक कार्य
उन्होंने बताया कि सूर्य वर्ष के 12 महीनों में प्रतिमाह 12 राशियों में संचरण (संक्रमण) होता है, जिससे संवत्सर बनता है। अमावस्या से अमावस्या तक जिस माह में सूर्य का किसी भी राशि में संक्रमण नहीं होता है तो वह अधिकमास कहलाता है। कभी-कभी अमांत मास में दो बार संक्रांति आ जाती है, उसे क्षय मास कहते हैं। अधिकमास और क्षय मास दोनों ही मलमास माने जाते हैं। इसलिए इनमें विवाह, गृह प्रवेश जैसे मांगलिक कार्य नहीं किए जात हैं। धार्मिक मान्यता के मुताबिक पुरुषोत्तम मास में थोड़े दान का भी बड़ा पुण्य माना जाता है। जल मंदिर, बावड़ी, पक्षियों के लिए परिंडे, वृद्ध सेवा, अनाथों की सेवा आदि को विशेष फलदायी माना गया है।
इन कर्मों को माना गया है पुण्यदायी
भारतीय काल गणना सूक्ष्म से सूक्ष्म और विराट से विराट गणितीय लक्ष्यों तक पहुंच जाती है। काल गणना में अध्यात्म का समावेश कर संवत्सर, अयन मास पक्ष, तिथि नक्षत्र, राशि सब के अलग-अलग नाम, स्वामी-देवता तय है। वहीं अधिकमास अतिरिक्त मास होने से उसका स्वयं का नाम, स्वामी देवता नहीं होते हैं। इसलिए देव-पितरों की पूजा और मंगल कार्य के लिए इसे तिरस्कृत माना गया है।
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