खबर - पंकज पोरवाल
भीलवाड़ा। जिले के मांडल कस्बे मे दिवाली के दूसरे दिन खेखरे (अन्नकूट) पर गधों (बैशाखीनंदन) की पूजा होती है। यह अनूठी परम्परा विगत 40 वर्षों से मांडल कस्बे के प्रताप नगर चैक (कुम्हार मोहल्ले) में की जा रही है। इस दिन पूरे गांव के गधों को एक चैक में एकत्रित किया जाता है। इसके बाद इनकी पूजा कर इन्हें भड़काया जाता है। अन्य जगह बेलों की पूजा-अर्चना कर उन्हें लापसी खिलाई जाती है। उसी तरह की परंपरा यहां गधों के साथ होती है। मांडल के प्रतापनगर क्षेत्र में गधों को नहला-धुलाकर सजाया जाता है। इसके बाद इन्हें एक चैक में एकत्रित करते हैं। पंडित इनकी पूजा कर इनका मुंह मीठा भी करते हैं। इसके बाद इन्हें भड़काया जाता है। इस परंपरा को देखने के लिए मांडल सहित आसपास के गांवों के लोग भी यहां एकत्रित होते हैं। ग्रामीण अपने रिश्तेदार को यहां यह कार्यक्रम देखने के लिए बुलाते हैं।
बरसों से चली आ रही परंपरा
वरिष्ठजन पूर्व सरपंच गोपाल कुम्हार ने बताया कि वर्षों पूर्व जब किसानों कि आजीविका में बेलों की अहम भूमिका रहती थी। कास्तकारों में दीपावली के दूसरे दिन बेलों की पूजा का विशेष त्यौहार मनाया जाता है इसी बात पर मंथन कर गोपाल कुम्हार ने अपने समाजजनों से सामुहिक चर्चा कर उनकी आजीविका में सहयोगी गधों (वैशाखी नंदन) की पूजा का भी निर्णय लिया। तब से अब तक लगातार वे अपने इस रिवाज को जिम्मेदारी से निर्वहन कर रहे है। साथ ही उन्होंने बताया कि जिले में महज मांडल कस्बे में ही ये परंपरा मनाई जाती है। उस समय हर घर में तीन से चार गधे हुआ करते थे जब एक साथ 50 से अधिक गधों की पूजा की जाती थी लेकिन धीरे - धीरे आधुनिक युग बदलता गया और इसकी उपयोगिता समाप्त होती गई जैसे-जैसे ये प्रजाति भी मानो लुप्त सी होती जा रही है फिर भी आस- पड़ोस से लाकर इनकी पूजा की रस्म जारी रखी जा रही है। अब ये परम्परा युवा वर्ग में गणेश सेवा समिति (प्रताप नगर) द्वारा निर्वहन की जाती है।
कम हो रही है गधों की संख्या
समय के साथ-साथ अब गधों की संख्या कम हो रही है। पहले तालाब से मिट्टी लाने व छोटे-मोटे काम के लिए लोग गधों का ही सहारा लेते थे। अब संसाधन खूब होने से इनकी संख्या कम हुई है। इसके बावजूद भी कुम्हार समाज के लोग गधों का पालन करते हैं। इसलिए यह परंपरा चली आ रही है। कई बार गधे कम पडने पर दूसरी जगह से मंगवाए जाते हैं।